इंद्र देव का डर


किसी तपस्वी द्वारा तपस्या करने पर इंद्र का डर जाना और उनका इंद्रासन हिल जाना भारतीय पौराणिक कथाओं में एक आम अवधारणा है। इसका सांसरिक कारण समझने के लिए हमें इंद्र और उनकी भूमिका को समझना होगा।

पौराणिक कारण:

इंद्र देवताओं के राजा हैं और उन्हें स्वर्ग का शासक माना जाता है। जब कोई तपस्वी कठोर तपस्या करता है, तो उसे बहुत अधिक शक्ति और सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इस शक्ति से तपस्वी इंद्रासन को चुनौती दे सकता है या इंद्र की स्थिति को खतरे में डाल सकता है। इस डर से इंद्र का इंद्रासन हिलने लगता है और वह किसी भी तरीके से उस तपस्या को भंग करने की कोशिश करता है।

सांसरिक कारण:

अब इसे सांसरिक दृष्टिकोण से देखें:

  1. प्रतिस्पर्धा और सत्ता की सुरक्षा: जैसे एक राजा या नेता अपने पद को बचाए रखने के लिए किसी भी चुनौती या विरोध को खत्म करने की कोशिश करता है, वैसे ही इंद्र अपने स्थान को सुरक्षित रखने के लिए तपस्वी की तपस्या को खतरे के रूप में देखते हैं।

  2. शक्ति और प्रभाव का संतुलन: किसी भी समाज या व्यवस्था में जब कोई व्यक्ति अत्यधिक शक्ति प्राप्त करता है, तो वह उस समाज के शक्ति संतुलन को प्रभावित करता है। तपस्वी की सिद्धियाँ और शक्ति इंद्र की सत्ता के लिए खतरा बन सकती हैं।

  3. प्रगति और ईर्ष्या: जब कोई व्यक्ति अथक परिश्रम और साधना से उच्च स्तर की सफलता प्राप्त करता है, तो कई बार समाज के अन्य लोग ईर्ष्या और असुरक्षा महसूस करने लगते हैं। इंद्र का डर भी इसी ईर्ष्या और असुरक्षा का प्रतीक हो सकता है। 

इस प्रकार, तपस्वी की तपस्या से इंद्र का डर और इंद्रासन का हिलना एक प्रतीकात्मक रूप में दर्शाता है कि कैसे शक्ति, प्रभाव और सत्ता को बचाने की कोशिश की जाती है, चाहे वह देवताओं के बीच हो या मानव समाज में।

सिम्बॉलिज्म के दृष्टिकोण से जो मेरी समझ है:

भगवान इंद्र को दस दिक्पालों में से एक माना जाता है, जो पूर्व दिशा के संरक्षक हैं। लेकिन अगर हम इस परिकल्पना को दस इंद्रियों (पांच कर्मेंद्रियाँ और पांच ज्ञानेंद्रियाँ) से जोड़कर देखें, तो यह एक प्रतीकात्मक व्याख्या हो सकती है।

प्रतीकात्मक व्याख्या

यदि इंद्र को दस इंद्रियों (कर्मेंद्रियाँ और ज्ञानेंद्रियाँ) के संदर्भ में देखा जाए, तो इसे इस प्रकार समझा जा सकता है:

  1. कर्मेंद्रियाँ (क्रियात्मक इंद्रियाँ) और ज्ञानेंद्रियाँ (ज्ञानात्मक इंद्रियाँ) हमारे जीवन के विभिन्न कार्यों और अनुभवों को संचालित करती हैं।
  2. इंद्र को देवताओं के राजा और इंद्रियों के स्वामी के रूप में माना जाता है। इस दृष्टिकोण से, इंद्र सभी इंद्रियों (कर्मेंद्रियाँ और ज्ञानेंद्रियाँ) के नियंत्रण और संतुलन के प्रतीक हो सकते हैं।
  3. यह प्रतीकात्मकता दर्शाती है कि आत्म-संयम और इंद्रियों का नियंत्रण अत्यंत महत्वपूर्ण है। इंद्र के संदर्भ में, इंद्रियों पर नियंत्रण और उनका सही दिशा में प्रयोग हमारी आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति के लिए आवश्यक है। 

हमारी पांच कर्मेंद्रियाँ और पांच ज्ञानेंद्रियाँ हैं 

भारतीय दर्शन में, विशेषकर सांख्य और योग शास्त्रों में, मानव शरीर को दस मुख्य इंद्रियों में विभाजित किया गया है, जिन्हें कर्मेंद्रियाँ और ज्ञानेंद्रियाँ कहा जाता है।

अब आप इन्हें ऐसे समझिये कि जब हम तपस्या या साधना के लिए बैठने का मन बनाते हैं तो उसका क्रम कैसा होता है? आइये उसे विस्तार पूर्वक समझें।

पांच कर्मेंद्रियाँ (क्रियात्मक इंद्रियाँ)

  1. हाथ (हस्त) - कार्य करना
  2. पैर (पाद) - चलना
  3. मुंह (वाक्) - बोलना
  4. गुदा (पायुपथ) - मलत्याग
  5. जननेद्रिय (उपस्थ) - प्रजनन

पांच ज्ञानेंद्रियाँ (ज्ञानात्मक इंद्रियाँ)

  1. आंखें (चक्षु) - देखना
  2. कान (श्रवण) - सुनना
  3. नाक (घ्राण) - सूंघना
  4. जीभ (रसना) - स्वाद लेना
  5. त्वचा (स्पर्श) - स्पर्श महसूस करना

साधना का क्रम कैसा होता है ऐसे समझिए :

१) आँख - ने साधना के बारे में पढ़ा, या किसी को साधना करते देखा और आप प्रेरित हो गए कि मुझे भी साधना करना है या करना चाहिए।

२) कान - आपके कान ने किसी से साधना और तप के बारे में सुना और आप प्रेरित हो गए कि हमें भी साधना करना है।

३) चरण - आपके पैर उपयुक्त स्थान पर रुकेंगे और आपके मन को वहां बैठने पर मजबूर कर देंगे।

४) हाथ - जैसे ही आप पद्मासन में बैठेंगे वैसे ही आपके दोनों हाथ आस पास की जगहों को साफ कर देंगें और आपके बैठते ही आपके दोनों घुटनों पर चले जाएंगे।

५) गूदा - जैसे ही आप बैठेंगे तो दवाब पड़ने के कारण उदर के सारे मल मूत्र दूषित वायु को नियंत्रित करना शुरू कर देंगे।

६) कान - अब अंट शंट अनावस्यक ध्वनियों को सुनने पर अंकुश लगाना शुरू कर देगा।

७) नाक - श्वास पर नियंत्रण करना शुरू कर देगा।

८) जीभ - स्वादिस्ट भोजन हलवा ,पूरी, मिष्टान आदि के रसास्वादन से विरक्त कर लेगा।

९) त्वचा - अपने आपको बदलते मौसम के अनुकूल बना लेगा।

१०) मुंह - मंत्रोच्चार करना शुरू कर देगा।

११) जननेद्रिय - काम वासना आदि की ओर ध्यान को भटकाना बंद कर देगा।

और इन सभी क्रियाओं को नियंत्रित करता है आपका मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और जब वह इन्द्रियों को नियंत्रित कर रहा होता है तो इन्द्रिय छटपटाते हैं, मन को भटकाने की कोशिश करते हैं, आप की पकड़ से छूट जाना चाहते  है, वह हर तरफ के व्यसन का उपभोग करने की स्वतंत्रता चाहता है, और आपका मन, बुद्धि, अहंकार एवं चित्त उसे नियंत्रित करने की चेस्टा कर रहा होता है तो ऐसे में वह छटपटाएगा ही। सांसारिक रूप से यदि कहें तो यदि आपसे  कोई आपकी फ्रीडम छीन रहा हो तो आप कई प्रकार की युक्ति लगाते ही हैं न। इसी प्रकार इंद्र देव चूँकि वे सभी इन्द्रियों के राजा हैं तो भांति भांति के षड़यंत्र रचते रहते हैं ताकि उनकी प्रजा अपने मन के हिसाब से चलें, और अपने मन का ही करें। इस प्रयास में कभी अप्सराओं, कभी पवन देव, कभी सूर्यदेव, कभी वरुणदेव इत्यादि की सहायता से सभी प्रकार का छल करते रहते हैं। इसी प्रकार से जब आप अपने १० इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं तो मेघनाद से इंद्रजीत बन जाते हैं।

निष्कर्ष

इस प्रकार, भगवान इंद्र को दस इंद्रियों के प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है, जो इस बात का प्रतीक है कि इंद्रियों का सही नियंत्रण और संतुलन जीवन में सफलता और संतुलन का मार्ग है। यह प्रतीकात्मकता भारतीय दर्शन और पौराणिक कथाओं में इंद्र की महत्वपूर्ण भूमिका को भी दर्शाती है।

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