भारत में छुआछूत, विभाजन की मानसिकता, और सनातन भारतीय समाज की संरचना: एक पुनर्विचार







भारत में छुआछूत, विभाजन की मानसिकता, और सनातन भारतीय समाज की संरचना: एक पुनर्विचार

भारत, जिसकी सभ्यता हजारों वर्षों से समृद्ध और जटिल रही है, वह एक ऐसी संस्कृति को समेटे हुए है जिसमें सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक ताने-बाने गहरे बंधे हुए हैं। भारतीय समाज की इस संरचना में जाति व्यवस्था, छुआछूत, और विभाजन की मानसिकता ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि, यह समझना आवश्यक है कि इस संरचना की मूल भावना में सामाजिक न्याय, समानता और सर्वजन सुखाय का आदर्श निहित है। इस लेख में, हम छुआछूत की उत्पत्ति, अंग्रेजों की विभाजनकारी मानसिकता, कांग्रेस की सत्ता हस्तांतरण के बाद की नीतियों, और भारतीय जाति व्यवस्था की खूबसूरती और समृद्धता को समझने की कोशिश करेंगे।

छुआछूत की उत्पत्ति और सामाजिक सुरक्षा

छुआछूत की परंपरा का आरंभ भारतीय समाज में एक सामाजिक सुरक्षा उपाय के रूप में हुआ था। मेरे स्वर्गीय दादा जी के अनुसार, छुआछूत का मूल उद्देश्य उन धर्मांतरित लोगों से समाज की रक्षा करना था, जिन्हें मलेच्छ कहा जाता था। ये लोग मुस्लिम शासन के दौरान सनातन धर्म से अलग हुए और एक अलग संस्कृति और जीवन शैली को अपनाया। इस भिन्नता को देखते हुए, हिंदू समाज ने अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक शुद्धता को बनाए रखने के लिए छुआछूत को एक उपाय के रूप में अपनाया।

मेरे दादा जी की कथा: एक व्यक्तिगत अनुभव

मेरे स्वर्गीय दादा जी, जो सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के गहरे अनुयायी थे, हमेशा हमें अपनी जीवन की कहानियों के माध्यम से शिक्षा देते थे। एक बार जब वे हमारे साथ बैठे थे, तो उन्होंने मुझे छुआछूत और मलेच्छों के बारे में एक महत्वपूर्ण कथा सुनाई, जो उनके व्यक्तिगत अनुभवों और उनके समय की सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी थी।

मलेच्छ मोहल्ले से गुजरने का अनुभव

दादा जी ने बताया कि जब वे मेरे ससुराल जाते थे, तो उन्हें एक मलेच्छ (धर्मांतरण कर चुके लोग) के मोहल्ले से होकर गुजरना पड़ता था। यद्यपि वे स्नान करके जाते थे, फिर भी जब उन्हें ससुराल में भोजन करना होता था, तो उन्हें पुनः स्नान करना आवश्यक होता था। मैंने उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा, "मलेच्छ की छाया भी हिंदुओं को अशुद्ध कर सकती है।"

यह बात सुनकर मैं हैरान हुआ और मैंने उनसे पूछा कि क्या इस तरह की मानसिकता से हमारा हिंदू समाज भी छुआछूत के चक्कर में बंट जाएगा? इस पर दादा जी ने मुझे कई जीवंत उदाहरणों के माध्यम से समझाया।

छुआछूत की परंपरा का कारण

दादा जी ने कहा कि हिंदुओं की किसी भी जाति में छुआछूत का प्रचलन हमारे पूर्वजों द्वारा नहीं किया गया था। यह परंपरा उस समय शुरू हुई जब कुछ जातियों के लोग धर्मांतरण कर मलेच्छ बन गए थे। चूंकि ये धर्मांतरण ज्यादातर पिछड़ी जातियों से हुए थे, और जब वे लोग वापस आकर अपने मूल जाति के लोगों के साथ मंदिर जाने लगे, तो हमारे पूर्वजों के लिए इन मलेच्छों के प्रोपेगेंडा से समाज को बचाना एक चुनौती बन गया।

समाज की रक्षा के लिए उठाया गया कदम

दादा जी ने आगे बताया कि हमारे पूर्वजों ने उस समय की स्थिति को समझते हुए उन जातियों के मुखियाओं को बुलाया और उनसे कहा, "अगर आपके साथ ये धर्मांतरित मलेच्छ मंदिर जाते रहेंगे, तो हम आपके सनातन धर्म की रक्षा नहीं कर पाएंगे।" इसके बाद उन मुखियाओं ने समाज में यह घोषणा की कि यदि कोई भी मलेच्छ को साथ लेकर मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश करेगा, तो उसे जाति से बाहर कर दिया जाएगा।

इस निर्णय के बाद, उन जातियों के लोग सजग हो गए और समाज में धर्म की शुद्धता को बनाए रखने के लिए यह कदम उठाया गया। हालांकि, उन जातियों में कुछ राजनीतिक महत्वाकांक्षी लोग भी थे, जिन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रोत्साहित कांग्रेस ने पहचान लिया। उन्होंने समाज में विभाजन की राजनीति को बढ़ावा देने के लिए इस स्थिति का उपयोग किया।

बॉलीवुड और विभाजन की राजनीति

दादा जी ने बताया कि कैसे बॉलीवुड ने इस विभाजनकारी राजनीति को और भी भड़काने के लिए ऐसी फिल्में बनाई, जिसमें सनातन भारतीय जाति व्यवस्था को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया। इन फिल्मों में निम्न जाति के लोगों को अपमानित करने के दृश्य दिखाए गए, जैसे कि थूकने के लिए गर्दन में मटका लटकाना या कमर में झाड़ू बांधना।

इस तरह की फिल्मों के माध्यम से समाज में एक नकारात्मक नैरेटिव सेट किया गया, जिससे समाज में जातिगत विभाजन को और बढ़ावा मिला।

निष्कर्ष

दादा जी की इस कथा ने मुझे यह समझने में मदद की कि छुआछूत की परंपरा का मूल उद्देश्य समाज की रक्षा और धर्म की शुद्धता को बनाए रखना था। हालांकि, समय के साथ इसका दुरुपयोग हुआ और यह एक सामाजिक बुराई के रूप में सामने आई।

दादा जी ने यह भी बताया कि कैसे अंग्रेजों और कांग्रेस ने इस परंपरा का उपयोग समाज में विभाजन को बढ़ाने के लिए किया। उन्होंने हमें यह सिखाया कि हमें अपने समाज की संरचना और उसकी मूल भावना को समझने की जरूरत है, ताकि हम इसे बाहरी ताकतों के प्रभाव से बचा सकें और समाज में एकता और सद्भाव बनाए रख सकें।

विभाजन की मानसिकता और अंग्रेजों का षड्यंत्र

अंग्रेजों के भारत में आने का मुख्य उद्देश्य आर्थिक लाभ प्राप्त करना था, लेकिन उन्होंने जल्दी ही यह समझ लिया कि भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश को केवल सैन्य बल से नियंत्रित करना असंभव है। इसके बजाय, उन्होंने एक कूटनीतिक और रणनीतिक नीति अपनाई जिसे "फूट डालो और राज करो" के नाम से जाना जाता है। इस नीति के तहत, अंग्रेजों ने भारतीय समाज की आंतरिक संरचना, जिसमें जाति व्यवस्था और धार्मिक विविधता शामिल थी, को तोड़ने के लिए विभाजन का बीज बोया।

जातिगत विभाजन को बढ़ावा

अंग्रेजों ने जातिगत विभाजन को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न तरीकों का सहारा लिया। उन्होंने जातियों के बीच भेदभाव को प्रोत्साहित किया, जिससे विभिन्न जातियों के बीच आपसी अविश्वास और द्वेष पैदा हुआ। उदाहरण के लिए, अंग्रेजों ने कुछ जातियों को सरकारी नौकरियों और सेना में भर्ती के लिए प्राथमिकता दी, जबकि अन्य को उपेक्षित किया। इससे समाज में असंतुलन और असमानता बढ़ी।

इसके अलावा, अंग्रेजों ने जाति आधारित जनगणनाएं शुरू कीं, जिससे विभिन्न जातियों के बीच प्रतिस्पर्धा और तनाव बढ़ा। यह जनगणनाएं केवल सांख्यिकीय उद्देश्य के लिए नहीं थीं, बल्कि उनका असली उद्देश्य समाज में विभाजन को और गहरा करना था। जातिगत आंकड़ों का उपयोग विभाजनकारी नीतियों को लागू करने के लिए किया गया, जिससे समाज में एकता की भावना कमजोर हुई।

धार्मिक विभाजन की साजिश

अंग्रेजों ने भारतीय समाज की धार्मिक विविधता का भी उपयोग समाज को विभाजित करने के लिए किया। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न तरीकों का सहारा लिया। अंग्रेजों ने धार्मिक स्थलों और त्योहारों को लेकर विवाद पैदा किए, जिससे दोनों समुदायों के बीच अविश्वास और हिंसा बढ़ी।

उदाहरण के लिए, अंग्रेजों ने 1857 के विद्रोह के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने की कोशिश की, ताकि वे एकजुट होकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह न कर सकें। उन्होंने जानबूझकर धार्मिक मुद्दों को उछालकर समाज में विभाजन पैदा किया, जैसे कि गोरक्षा और मांसाहार के मुद्दों को भड़काना।

भारतीय जाति व्यवस्था को कमजोर करने का प्रोपेगेंडा

अंग्रेजों ने भारतीय समाज की समृद्ध जाति व्यवस्था को कमजोर करने के लिए प्रोपेगेंडा फैलाया। भारतीय जाति व्यवस्था, जो एक सामाजिक और आर्थिक संरचना थी, को अंग्रेजों ने जानबूझकर एक दमनकारी और असमान व्यवस्था के रूप में चित्रित किया। उन्होंने भारतीयों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि उनकी परंपराएं और व्यवस्था उन्हें कमजोर बना रही हैं, जबकि वास्तव में यह व्यवस्था समाज में संतुलन और समन्वय बनाए रखने का एक साधन थी।

इस प्रोपेगेंडा को और बढ़ावा देने के लिए अंग्रेजों ने विभिन्न सामाजिक सुधार आंदोलनों को समर्थन दिया। ये आंदोलनों का उद्देश्य भारतीय समाज की मूल संरचना को कमजोर करना था। अंग्रेजों ने समाज सुधारकों का समर्थन किया, जिन्होंने जाति व्यवस्था को समाप्त करने की मांग की, लेकिन यह सुधारक अक्सर समाज की गहरी जड़ों को समझे बिना ही बदलाव की मांग कर रहे थे।

विभाजनकारी मानसिकता को बढ़ावा देने के प्रभाव

अंग्रेजों की विभाजनकारी नीतियों का प्रभाव भारतीय समाज पर बहुत गहरा पड़ा। समाज में जातिगत और धार्मिक विभाजन बढ़ता गया, जिससे सामाजिक सद्भावना और एकता कमजोर हो गई। इस विभाजनकारी मानसिकता ने भारत की स्वतंत्रता के बाद भी समाज को प्रभावित किया। अंग्रेजों के जाने के बाद, विभाजन की यह नीति भारतीय राजनीति में भी जारी रही, जिससे समाज में असमानता और अविश्वास की भावना बनी रही।

अंग्रेजों की इस विभाजनकारी नीति का उद्देश्य केवल सत्ता को स्थिर रखना ही नहीं था, बल्कि भारतीय समाज को इस हद तक कमजोर करना था कि वह स्वतंत्रता के बाद भी एकजुट न हो सके। अंग्रेजों ने समाज के विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया, जिससे समाज में विभाजन की भावना गहरी हो गई।

निष्कर्ष

अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति "फूट डालो और राज करो" भारतीय समाज की एकता और सद्भावना को कमजोर करने का एक गहरा षड्यंत्र था। उन्होंने जातिगत और धार्मिक विभाजन को बढ़ावा देकर समाज को विखंडित कर दिया। इसके साथ ही, उन्होंने भारतीय जाति व्यवस्था को कमजोर करने के लिए प्रोपेगेंडा फैलाया और समाज सुधार आंदोलनों का समर्थन किया, जिससे भारतीय समाज की मूल संरचना पर प्रहार हुआ।

आज भी, यह विभाजनकारी मानसिकता हमारे समाज में विद्यमान है, जो समाज में एकता और सद्भावना को कमजोर करती है। यह आवश्यक है कि हम इस विभाजनकारी मानसिकता से छुटकारा पाएं और समाज में एकता, समानता और सद्भावना को पुनः स्थापित करें, जो भारतीय संस्कृति और परंपराओं की असली पहचान है।

कांग्रेस की सत्ता हस्तांतरण के बाद की नीतियां: विभाजनकारी राजनीति और बॉलीवुड के माध्यम से जातिगत विभाजन

1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के साथ ही सत्ता का हस्तांतरण हुआ, लेकिन इस हस्तांतरण के साथ ही जो राजनीति सामने आई, उसने भारतीय समाज में गहरे और स्थायी विभाजन को जन्म दिया। अंग्रेजों की "फूट डालो और राज करो" की नीति के बाद, कांग्रेस ने सत्ता में आने के बाद उस विभाजनकारी राजनीति को एक नई दिशा दी, जिसने समाज को और भी अधिक विभाजित किया।

जातिगत राजनीति का उभार

स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हित साधने के लिए जातिगत राजनीति को बढ़ावा दिया। कांग्रेस ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए जातियों के बीच के भेदभाव को बनाए रखा और उन्हें और भी बढ़ावा दिया। जातिगत राजनीति का उद्देश्य समाज के विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना था, ताकि कांग्रेस अपनी सत्ता को स्थिर रख सके।

जाति आधारित आरक्षण, जो एक अस्थायी उपाय के रूप में शुरू किया गया था, को कांग्रेस ने स्थायी बना दिया और इसे बढ़ाने का प्रयास किया। यह आरक्षण नीतियां समाज के विभिन्न वर्गों के बीच प्रतिस्पर्धा और तनाव को बढ़ाने के लिए उपयोग की गईं। इसके साथ ही, कांग्रेस ने जातिगत जनगणना को भी बढ़ावा दिया, जिससे समाज में जातिगत आधार पर भेदभाव को और भी गहरा किया गया।

बॉलीवुड और विभाजनकारी मानसिकता का प्रसार

कांग्रेस की विभाजनकारी नीतियों का प्रभाव केवल राजनीति तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने भारतीय सिनेमा, विशेषकर बॉलीवुड के माध्यम से समाज में गहरी पैठ बनाई। बॉलीवुड ने कांग्रेस की इस विभाजनकारी राजनीति को और भी बढ़ावा दिया, जिसमें जाति व्यवस्था को नकारात्मक और अपमानजनक रूप में प्रस्तुत किया गया।

फिल्मों में निम्न जाति के लोगों को अपमानजनक स्थितियों में दिखाना: बॉलीवुड की फिल्मों में निम्न जाति के लोगों को ऐसे दिखाया गया, मानो वे समाज के लिए एक बोझ हों। जैसे कि फिल्मों में थूकने के लिए गर्दन में मटका लटकाना या कमर में झाड़ू बांधना दिखाना, यह केवल एक दृश्य नहीं था, बल्कि एक प्रतीकात्मक संदेश था, जो समाज में जातिगत भेदभाव को बढ़ाने के लिए दिया जा रहा था।

एक गलत नैरेटिव का निर्माण: इस तरह की फिल्मों ने समाज में एक गलत नैरेटिव सेट किया, जिसमें यह संदेश दिया गया कि भारतीय जाति व्यवस्था केवल दमन और शोषण का प्रतीक है। यह नैरेटिव विशेष रूप से पश्चिमी दर्शकों के लिए बनाया गया था, ताकि भारतीय समाज की परंपराओं को कमजोर किया जा सके। इस तरह की फिल्मों ने न केवल समाज के निचले तबके को अपमानित किया, बल्कि समाज के उच्च जातियों को भी एक नकारात्मक भूमिका में प्रस्तुत किया, जिससे समाज में अलगाव और विभाजन की भावना बढ़ी।

मीडिया और साहित्य के माध्यम से जातिगत विभाजन का प्रसार

फिल्मों के अलावा, कांग्रेस ने मीडिया और साहित्य के माध्यम से भी इस विभाजनकारी मानसिकता को आगे बढ़ाया। कांग्रेस के शासनकाल में मीडिया ने जातिगत विभाजन को बढ़ावा देने वाले विचारों को प्रसारित किया।

जाति आधारित साहित्य: जातिगत भेदभाव पर आधारित साहित्य को प्रोत्साहित किया गया, जिसमें समाज के निचले तबके को हमेशा शोषित और दमनकारी के रूप में प्रस्तुत किया गया। इन साहित्यिक कृतियों में समाज के विभिन्न वर्गों के बीच एक स्थायी विभाजन की भावना को बल दिया गया।

मीडिया में विभाजनकारी नैरेटिव का प्रसार: मीडिया ने भी कांग्रेस की इस विभाजनकारी नीति का समर्थन किया। समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में ऐसे लेख और संपादकीय प्रकाशित किए गए, जो जातिगत विभाजन को बढ़ाने के लिए डिजाइन किए गए थे।

समाज पर प्रभाव और विभाजन की गहराई

कांग्रेस की विभाजनकारी नीतियों और बॉलीवुड तथा मीडिया के माध्यम से फैलाए गए इस नैरेटिव का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। भारतीय समाज, जो कि एकता और सद्भावना का प्रतीक था, धीरे-धीरे जातिगत और धार्मिक विभाजन की ओर बढ़ता गया।

जातिगत हिंसा और तनाव: इस विभाजनकारी राजनीति और नैरेटिव ने समाज में जातिगत हिंसा और तनाव को बढ़ावा दिया। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच अविश्वास और द्वेष की भावना गहरी हो गई।

समाज की एकता को खतरा: इस विभाजनकारी नीति के कारण भारतीय समाज की एकता और सद्भावना को खतरा पैदा हो गया। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संवाद और सहयोग की भावना कमजोर हो गई, जिससे समाज में स्थिरता और विकास की गति धीमी पड़ गई।

निष्कर्ष

कांग्रेस की सत्ता हस्तांतरण के बाद की नीतियों ने भारतीय समाज में विभाजन को और गहरा कर दिया। कांग्रेस ने अंग्रेजों की विभाजनकारी नीतियों को आगे बढ़ाते हुए जातिगत राजनीति को बढ़ावा दिया, जिससे समाज में जातिगत आधार पर भेदभाव और तनाव बढ़ा।

बॉलीवुड और मीडिया ने भी इस विभाजनकारी मानसिकता को और बढ़ावा दिया, जिससे समाज में एक गलत नैरेटिव सेट किया गया। यह आवश्यक है कि हम इस विभाजनकारी मानसिकता से छुटकारा पाएं और समाज में एकता, समानता और सद्भावना को पुनः स्थापित करें। यह हमारे सनातन भारतीय समाज की महानता और समृद्धता का प्रतीक है, जिसे हमें बनाए रखना है और आने वाली पीढ़ियों को इसके महत्व से अवगत कराना है।

भारतीय जाति व्यवस्था की खूबसूरती और समृद्धता को समझने के लिए हमें इसे सामाजिक, धार्मिक, और जातिवाद की दृष्टि से विस्तार से देखना होगा:

सामाजिक दृष्टिकोण

  1. समाजिक अनुशासन और समन्वयभारतीय जाति व्यवस्था का प्रमुख उद्देश्य समाज में विभिन्न कार्यों का विभाजन और समन्वय था। प्रत्येक जाति को एक विशेष भूमिका दी गई थी, जिससे समाज में कार्यों का सुव्यवस्थित ढंग से विभाजन हुआ। इससे समाज में हर व्यक्ति को उसकी भूमिका और कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी का बोध हुआ। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों को शिक्षा और धर्म के संरक्षक के रूप में देखा गया, जबकि शूद्रों को सेवा और कारीगरी का कार्य सौंपा गया।

  2. आर्थिक स्थिरताजाति व्यवस्था ने आर्थिक स्थिरता को भी बनाए रखा। व्यापार, कृषि, और कारीगरी में भागीदारी के माध्यम से विभिन्न जातियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में विशेषज्ञता हासिल की। यह विशेषकरण ने सामाजिक और आर्थिक विकास को प्रोत्साहित किया, और समाज के विभिन्न वर्गों के बीच कार्यों का संतुलन बनाए रखा।

  3. समाजिक प्रतिष्ठा और सम्मानजाति व्यवस्था ने प्रत्येक जाति को एक सम्मानजनक स्थान प्रदान किया। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती थी कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके सामाजिक स्थान के अनुसार सम्मान मिले। यह सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना समाज के सामंजस्य को बनाए रखने में सहायक थी।

धार्मिक दृष्टिकोण

  1. धार्मिक भूमिका और कर्तव्यजाति व्यवस्था ने धार्मिक कर्तव्यों और भूमिकाओं का विभाजन किया। ब्राह्मणों को धार्मिक अनुष्ठान और संस्कारों का नेतृत्व सौंपा गया, जबकि क्षत्रिय धर्म और शासन के संरक्षक थे। यह व्यवस्था धार्मिक कार्यों को सुव्यवस्थित करने में मददगार रही और समाज में धार्मिक अनुशासन बनाए रखा।

  2. धर्म के प्रति प्रतिबद्धताप्रत्येक जाति की भूमिका ने धर्म के प्रति समाज की प्रतिबद्धता को बढ़ाया। ब्राह्मणों द्वारा धार्मिक शिक्षा और संस्कार, क्षत्रिय द्वारा धर्म और न्याय की रक्षा, और वैश्य और शूद्रों द्वारा सामाजिक कार्यों में योगदान ने धर्म को समाज की विभिन्न परतों में समाहित किया।

जातिवाद की दृष्टि से

  1. जातिगत समन्वय: जाति व्यवस्था ने समाज के विभिन्न हिस्सों में एक संतुलन और समन्वय बनाए रखा। यह व्यवस्था न केवल कार्यों का विभाजन करती थी, बल्कि जातियों के बीच सहयोग और सम्मान को भी बढ़ावा देती थी। इससे समाज में शांति और स्थिरता बनी रही।

  2. प्रेरणा और कार्यक्षमता: जाति व्यवस्था ने प्रत्येक जाति को उसकी विशेष भूमिका में प्रेरित किया, जिससे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को उसकी भूमिका का महत्व समझ में आया। यह व्यवस्था समाज की कार्यक्षमता को बढ़ाने में सहायक रही और विभिन्न जातियों के बीच कार्यों का संतुलित वितरण किया।

निष्कर्ष

भारतीय जाति व्यवस्था का मूल उद्देश्य समाज में संतुलन और समन्वय बनाए रखना था। यह व्यवस्था एक प्रकार का सामाजिक अनुबंध थी, जिसमें प्रत्येक जाति को समाज में एक विशेष स्थान मिला हुआ था। धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से, इस व्यवस्था ने समाज की आर्थिक और सामाजिक स्थिरता को बनाए रखा। हालांकि, समय के साथ इस व्यवस्था में विभिन्न परिवर्तन हुए हैं, परंतु इसके मूल उद्देश्य और समाज में योगदान की खूबसूरती को समझना आवश्यक है।

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