महाकुंभ: आध्यात्मिक शक्ति का महासंगम
🙏 नमस्ते 🙏
महाकुंभ: आध्यात्मिक शक्ति का महासंगम
कुंभ मेला भारतीय संस्कृति का एक दिव्य और
अद्वितीय आयोजन है...
कुम्भे कुम्भोद्भवः स्नात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।" (स्कंद पुराण)
अर्थ: कुंभ में स्नान करने से मनुष्य सभी
पापों से मुक्त हो जाता है।
कुंभ मेला भारतीय संस्कृति का एक दिव्य और अद्वितीय आयोजन है, जो हर 12 वर्षों में प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में
आयोजित होता है और इसकी जड़ें पौराणिक काल से जुड़ी हुई हैं। मान्यता है कि
देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कलश की बूंदें इन पवित्र
स्थलों पर गिरी थीं, जिससे ये स्थान आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण हो गए।
त्र्यहं कुम्भोद्भवे स्नात्वा यत्र क्वापि मरणं भवेत्।
स वै मुक्तो न सन्देहो विष्णुना सह मोदते॥" (वायुपुराण)
अर्थ: जो व्यक्ति कुंभ पर्व में तीन दिनों तक स्नान करता है और फिर कहीं भी शरीर
त्यागता है, वह निःसंदेह मुक्त होकर श्रीविष्णु के धाम में जाता है।
यह मेला केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, मोक्ष प्राप्ति और
सनातन परंपराओं के संवर्धन का प्रतीक है, जहां करोड़ों श्रद्धालु
पवित्र स्नान कर अपने पापों से मुक्ति पाने का प्रयास करते हैं। कुंभ को आध्यात्मिक
शक्ति का प्रदर्शनीय महासंगम भी कहा जाता है, जहाँ देश-विदेश से आए
संत-महात्मा, योगी, अघोरी और विभिन्न अखाड़ों के तपस्वी अपनी साधना, योगबल और सिद्धियों का
प्रदर्शन करते हैं। यहाँ नागा साधुओं का वैराग्य, अवधूत संतों की
रहस्यमयी साधनाएँ, और विभिन्न संप्रदायों द्वारा किए जाने वाले आध्यात्मिक
अनुष्ठान, शास्त्रार्थ एवं प्रवचन, इसे एक अद्भुत
आध्यात्मिक प्रयोगशाला में परिवर्तित कर देते हैं। श्रद्धालु न केवल मोक्ष की
कामना से स्नान करते हैं, बल्कि संतों के दर्शन, आशीर्वाद और उपदेशों के
माध्यम से आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त कर अपने जीवन को दिशा देने का प्रयास करते
हैं। इसके अलावा, कुंभ मेला समाज में समरसता और एकता का भी
संदेश देता है, जहाँ जाति, पंथ और भाषा की सीमाएँ मिट जाती हैं, और विभिन्न समुदायों, संप्रदायों, साधु-संतों और
श्रद्धालुओं का महासंगम देखने को मिलता है। कुंभ में होने वाले आध्यात्मिक प्रवचन, योग साधना, वैदिक अनुष्ठान और
धार्मिक चर्चाएँ आत्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त करती हैं, वहीं इसका सामाजिक और
आर्थिक प्रभाव भी दूरगामी होता है। यह भारतीय संस्कृति की जीवंतता और सनातन धर्म
की अखंड परंपरा को सशक्त बनाता है, जहाँ आध्यात्मिक
शक्ति न केवल व्यक्तिगत मोक्ष का साधन है, बल्कि संपूर्ण समाज के कल्याण और आत्मिक
उत्थान का भी माध्यम बनती है।
यात्रा: संकल्प से साक्षात्कार तक
मेरी महाकुंभ यात्रा एक
व्यक्तिगत संकल्प से शुरू हुई और आध्यात्मिक साक्षात्कार के रूप में पूरी हुई। इस
यात्रा के लिए मैंने कोई पूर्व योजना नहीं बनाई थी—न ट्रेन टिकट बुक थी, न ठहरने का प्रबंध, न घूमने का कोई निश्चित
कार्यक्रम। लेकिन जब अचानक टिकट कन्फर्म हुआ, तो पता चला कि अगले ही
दिन यात्रा प्रारंभ करनी होगी। दूसरे दिन मैं अकेले ही घर से निकला, मन में यह सोचते हुए कि
काश कोई सहयात्री मिल जाए। मेरे बेटे ने मुझे रिक्शे तक छोड़ा, तभी हमारे पड़ोसी राज
गुप्ता जी (जो पत्थर खदान के व्यापारी हैं) अचानक अपनी फॉर्च्यूनर
कार से उतरकर मेरे पास आए। उन्होंने चरण स्पर्श किया, आशीर्वाद लिया और मेरी
यात्रा का प्रयोजन पूछा। जैसे ही मैंने बताया कि मैं महाकुंभ के लिए अकेले ही जा
रहा हूँ, वे बोले, "मैं भी 18 तारीख को पहुँचूंगा, यदि आपको किसी कारण देर हुई तो मैं आपको
वहीं मिलूंगा। चिंता मत कीजिए, हो सकता है हम साथ ही लौटें।" उनकी इन बातों ने मेरी आस्था को और प्रज्वलित कर दिया, ऐसा प्रतीत हुआ मानो
स्वयं भगवान ने मेरी हिम्मत बढ़ाने के लिए उन्हें भेजा हो।
मैंने ईश्वर का धन्यवाद किया और घर से निकल पड़ा। कुर्ला से ट्रेन पकड़ी, तो देखा कि मेरी बोगी में 90% यात्री कुंभ जाने वाले ही थे। मन से अकेले होने का भय समाप्त हो गया। अगले दिन दोपहर 3:35 बजे मेरी ट्रेन प्रयागराज जंक्शन पहुँची। स्टेशन पर उतरते ही मैंने तीर्थराज प्रयाग की पावन धरती को नमन किया और बाहर निकला। जगह-जगह पुलिस, NCC कैडेट और स्वयंसेवक तैनात थे, जो श्रद्धालुओं को संगम मार्ग बताने में सहायता कर रहे थे।
मैंने एक अधिकारी से कहा कि मैं महाराष्ट्र
से आया हूँ और त्रिवेणी संगम जाना चाहता हूँ। उन्होंने
अपने सहयोगी से कहा,
"मुंबई से आए हैं, इन्हें
मार्गदर्शन दीजिए।"
तभी उस अधिकारी ने मराठी में मुझसे कहा—
"इकडं जा,
राईट मारून बाहेर पडा, आणि परत लेफ्ट घ्या. मग सरळ चालत रहा. मध्ये मध्ये जागोजागी उभ्या
असलेल्या पोलिसांना विचारत जा,
ते तुम्हाला बरोबर गाईड करतील।"
यह सुनते ही मेरा मन प्रसन्न हो उठा। मन में भाव उमड़ा कि यही तो सच्चा भारत है - जहाँ उत्तर प्रदेश के तीर्थराज प्रयाग में एक मराठी अधिकारी, अपने ही राज्य की भाषा में देशवासियों को मार्गदर्शन दे रहा था। न केवल मराठी, बल्कि वहाँ तमिल, राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी, पहाड़ी, नेपाली, असमिया और बंगाली भाषाएं बोलने वाले अधिकारी भी यात्रियों की सहायता कर रहे थे । यह दृश्य देखकर मेरे मन में राष्ट्र की एकता और सनातन संस्कृति की भव्यता का अनुभव और भी प्रगाढ़ हो गया।
मैंने उनका धन्यवाद किया और आगे बढ़ा। चलते-चलते उन्होंने मुझे यह भी सलाह दी कि "हर जगह पुलिस मौजूद है, किसी भी तरह की सहायता के लिए केवल उन्हीं से संपर्क करें और उनके निर्देशों का पालन करें।" पुनः उन्हें धन्यवाद देकर मैं आगे बढ़ गया।
दरअसल ऐसा है कि प्रयागराज में महाकुंभ मेले के दौरान विभिन्न प्रांतों और भाषाओं के सुरक्षा कर्मियों की तैनाती एक सुव्यवस्थित प्रशासनिक योजना और राष्ट्रीय नेतृत्व के सहयोग का परिणाम है। इस विशाल आयोजन में भीड़ नियंत्रण और श्रद्धालुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस के साथ-साथ केंद्रीय अर्धसैनिक बलों (CRPF, CISF, BSF, ITBP, SSB) और विभिन्न राज्यों की पुलिस इकाइयों को भी शामिल किया जाता है। इससे देशभर से आए सुरक्षा कर्मी इस आयोजन का हिस्सा बनते हैं, जो विभिन्न भाषाएँ बोलते हैं और अलग-अलग प्रांतों से आते हैं।
महाकुंभ में लाखों श्रद्धालु देश के विभिन्न हिस्सों से आते हैं, इसलिए
कई राज्यों की सरकारें अपने पुलिस बलों को यहाँ भेजती हैं, जिससे
उनके प्रदेश से आए श्रद्धालुओं को बेहतर सहायता मिल सके। यह संयुक्त
पुलिस प्रबंधन प्रणाली
का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें
विभिन्न राज्यों की सुरक्षा एजेंसियाँ आपसी समन्वय से कार्य करती हैं। इसके अलावा, बहुभाषी
संचार प्रणाली
को भी लागू किया जाता है, जिससे
हिंदी, बंगाली,
मराठी, तमिल,
तेलुगु, पंजाबी जैसी अनेकों
विभिन्न भाषाओं में संवाद संभव हो सके। यह
श्रद्धालुओं को उनकी मातृभाषा में सहायता प्रदान करने के साथ-साथ, सुरक्षा
व्यवस्था को भी अधिक प्रभावी बनाता है।
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च।
कुम्भस्नाने तु तत् पुण्यं कोटिभागं
लभेन्नरः॥"
(ब्रह्मवैवर्त पुराण)
अर्थ: हजारों अश्वमेध यज्ञ और सैकड़ों
वाजपेय यज्ञ के पुण्य के समान ही एक कुंभ स्नान से मनुष्य को करोड़ गुना पुण्य
प्राप्त होता है।
महाकुंभ की सुरक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय स्तर पर एक संगठित प्रयास का
परिणाम है, जिसमें
अलग-अलग राज्यों की पुलिस, अर्धसैनिक बल, स्वयंसेवी
संगठन और तकनीकी संसाधन
मिलकर कार्य करते हैं। यह कुंभ मेले की व्यापकता और इसकी सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक महत्ता को
भी दर्शाता है। भारत की
"एकता में विविधता" की
भावना इस आयोजन में स्पष्ट रूप से झलकती है,
जहाँ भाषा, क्षेत्र और संस्कृति की सीमाएँ मिट जाती
हैं, और संपूर्ण राष्ट्र एक आध्यात्मिक उद्देश्य के लिए एकजुट हो जाता
है।
कुंभ यात्रा और पारिवारिक तीर्थ परंपरा
भारत में हर 12 वर्षों में 4 अलग-अलग स्थानों—प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक—पर महाकुंभ का आयोजन होता है। इसका अर्थ यह है कि हर 3 वर्षों में कहीं न कहीं कुंभ होना निश्चित है। आगामी कुंभ नासिक के गोदावरी तट पर होने जा रहा है, जिसे लेकर हम सभी अत्यंत उत्साहित हैं। लेकिन मुझसे कहीं अधिक मेरी माता जी इस कुंभ को लेकर रोमांचित हैं।
उनका यह उत्साह स्वाभाविक भी है, क्योंकि उनके दादा जी—यानी मेरे
परनाना—अपने क्षेत्र के बड़े जमींदार थे,
जिन्होंने उनके मायके में जानकी, रामचंद्र
जी और महादेव का एक भव्य मंदिर बनवाया था। परनाना जी के बाद मेरे नाना और नानी इस
मंदिर की देखरेख गृहस्थ संन्यासी के रूप में करते रहे। वृद्धावस्था में नाना जी ने
मंदिर की जिम्मेदारी संभाल ली,
जबकि मेरी नानी अपनी सखी-सहेलियों के साथ
तीर्थाटन का पुण्य लाभ अर्जित करने लगीं। उन्होंने भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों, 51 शक्ति
पीठों (जो वर्तमान भारत में स्थित हैं),
चार पीठों के चार धाम (जो आदि गुरु शंकराचार्य
द्वारा स्थापित किए गए थे),
और हिमालय के चार धामों में से यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ
(जो 12 ज्योतिर्लिंगों में भी शामिल है) और बद्रीनाथ की यात्रा पूरी कर
ली थी। हालाँकि, आज उत्तराखंड सरकार ने पर्यटन को ध्यान में रखते हुए यात्रा को
अधिक सुगम बना दिया है और इसे "चार धाम यात्रा" के रूप में प्रचारित
किया है, किंतु उन दिनों ये यात्राएँ अत्यंत कठिन हुआ करती थीं। इसके अलावा, मेरी
नानी ने पाँच प्रयाग,
पाँच पुरी, पाँच केदार, पाँ महाकुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं हैच
कैलाशों में से 4 कैलाश,
सप्त बद्री, पशुपतिनाथ (नेपाल), जनकपुर
(नेपाल) और वैद्यनाथ धाम (झारखंड) की यात्राएँ भी पूरी की थीं। विशेष रूप से
वैद्यनाथ धाम को 12
ज्योतिर्लिंगों की सूची में लेकर मतभेद बना
रहता है, फिर भी श्रद्धालु वहाँ आस्था के साथ जाते हैं। ऐसे में, उनकी
पुत्री—यानी मेरी माँ—का तीर्थाटन के लिए उत्साहित होना स्वाभाविक है, क्योंकि
यह वही समय है जब मैं छठी और सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। मेरे पैतृक गाँव में
पाँचवीं के बाद की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए मुझे अपने नाना जी के गाँव जाना पड़ा, जो
हमारे गाँव से अधिक विकसित था। नानी गाँव का हर पुरुष वहाँ की बेटी के बच्चों का
या तो नाना या मामा होता है,
ऐसे में उसे सभी लोग प्यार ही करते हैं, उसके
द्वारा की गई सभी प्रकार की गलतियों को भी नाती और भांजा समझकर नजरअंदाज कर दिया
जाता है, और धीरे-धीरे उस बच्चे का मनोबल गलतियाँ करने की प्रवृत्ति में
बढ़ता जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि "अगर किसी बच्चे को बिगाड़ना हो तो उसे
6 महीने या एक साल के लिए नानी या मामा के घर भेज दो।" चूँकि
मैं रोज़ अपने पैतृक गाँव से पैदल ही आना-जाना करता था, इसलिए
मुझ पर ननिहाल का वह प्रभाव पड़ना संभावित नहीं था। मेरे ननिहाल का विकसित होना
संभवतः इसलिए हुआ कि संयोग से,
उसी गाँव में मेरे एक दूर के मामा जी पटना
हाई कोर्ट में जज थे,
इसके अलावा और भी कई गणमान्य व्यक्ति बहुत
शिक्षित थे और उच्च पदों पर नियुक्त थे। जब समाज में शिक्षित लोगों की संख्या
बढ़ती है, तो समाज का विकास सुनिश्चित होता है, इसलिए
हमारे यहाँ परंपरा रही है कि भले ही भीख भी माँगनी पड़े, लेकिन
बच्चों को शिक्षित अवश्य करो,
ताकि जो कार्य हम नहीं कर पाए, वह
हमारे बच्चे पूरा कर सकें। हमें धन संचय करने की शिक्षा नहीं दी गई थी, मेरे
पूज्य गुरुजी कहा करते थे,
"पुत्र कुपुत्र तो क्यों धन संचय, पुत्र
सपूत तो क्यों धन संचय।" अर्थात यदि पुत्र कुपुत्र (दुश्चरित्र या
अनुशासनहीन) है, तो उसके लिए धन संचय करने का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि
वह उस धन को नष्ट कर देगा,
और यदि पुत्र सपूत (सुयोग्य और संस्कारी)
है, तो उसे स्वयं धन अर्जित करने की क्षमता होगी, इसलिए
उसके लिए भी धन संचय करने की आवश्यकता नहीं है। इस कहावत का गहरा संदेश यह है कि
धन संचय से अधिक महत्वपूर्ण शिक्षा,
संस्कार और आत्मनिर्भरता है, जब
व्यक्ति अपने बच्चों को योग्य,
शिक्षित और आत्मनिर्भर बना देता है, तो
उन्हें धन की आवश्यकता नहीं पड़ती,
वे स्वयं अपना भविष्य संवार सकते हैं। यही
कारण है कि हमारे समाज में शिक्षित बनने की परंपरा को अधिक महत्व दिया जाता था, न
कि धन संचय को। मैं स्कूल जाता था,
लेकिन टिफिन के दौरान कभी-कभी नानी के
मंदिर में चला जाता था। जब भी वे किसी तीर्थ से लौटतीं, तो
उनके तीर्थ अनुभवों की कहानियाँ सुनने को मिलती थीं। वे मुझे अपनी यात्राओं को
लिखने के लिए कहती थीं,
और उनके पास मेरे द्वारा लिखी गई तीर्थ
यात्राओं का एक बड़ा संग्रह था,
जो अब शायद प्राप्त करना मुश्किल होगा। आज
जब भी मैं किसी तीर्थ स्थान पर जाता हूँ,
तो सबसे पहले नानी का स्मरण करता हूँ और उन्हें
श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। मैं भाव-विभोर हो जाता हूँ कि उनकी आस्था और तीर्थ
परंपरा ने मेरे भीतर तीर्थाटन की भावना को सुदृढ़ किया है। उनकी प्रेरणा से ही मैं
हर तीर्थ में अपनी माता जी को भी स्मरण करता हूँ, क्योंकि उनकी जड़ ने मेरे जड़ को भी
तीर्थाटन के लिए मजबूत कर दिया है।
हालाँकि वहाँ कुम्भ मेले में मोटर साइकिल
का भी विकल्प उपलब्ध था,
लेकिन वह मुझे थोड़ा महँगा लगा, इसलिए
मैंने पैदल चलने को प्राथमिकता दी। कई किलोमीटर की दूरी पूछते हुए तय करने के बाद
मैं त्रिवेणी घाट पहुँच गया। रास्ते में सड़कों की स्वच्छता और उनकी सजावट को
देखकर मैं अचंभित हो रहा था। जब मैं त्रिवेणी मैया के घाट पर उनकी गोद में पहुँचा, तो
मन में सामान की सुरक्षा को लेकर एक भय उत्पन्न हुआ कि यदि मैं स्नान के लिए माँ
गंगा की गोद में जाऊँ तो इसकी सुरक्षा कौन करेगा। ध्यान से देखा तो अनुभव हुआ कि
सभी बिजली के खंभों को एक नंबर दिया गया है,
मैं 272 नंबर खंभे के पास बैठ गया। थोड़ा ध्यान लगाया और जब आँखें खुलीं
तो पाया कि एक पुलिसकर्मी मेरे पास खड़े हैं और पूछ रहे हैं, कि कोई समस्या है क्या ?
मैंने उनसे अपनी शंका का ज़िक्र किया तो
उन्होंने कहा,
"हमें इसी लिए तैनात किया गया है। दस मिनट
का समय देता हूँ, इस खंभे का नंबर ध्यान में रखिए और स्नान करके यहीं वापस आ
जाइए।" मुझे ऐसा लगा जैसे स्वयं भैरव बाबा साक्षात मेरी सुरक्षा के लिए खड़े
हैं। मैंने तुरंत कपड़े बदले और घाट पर स्नान के लिए आगे बढ़ा।
यत्र गंगा च यमुना चैव सरस्वती च महापगा:।
संगच्छन्ति महाभागास्तत्र स्नानं
समाचरेत्॥"
(पद्मपुराण)
अर्थ: जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती जैसी महान नदियाँ संगम करती हैं, वहाँ स्नान करने से महान पुण्य प्राप्त होता है।
तट के निकट पहुँचा तो माँ त्रिवेणी को कर जोड़कर प्रणाम किया और उसके बाद झुककर
हाथों से उनका स्पर्श किया। तत्पश्चात,
मैंने अपने शरीर के शूद्र भाग (चरण) को माँ
त्रिवेणी में रखा, फिर तीसरे कदम में वैश्य भाग (उदर) तक स्नान किया, फिर
मैंने घुटनों को मोड़ा और शरीर के क्षत्रिय भाग (छाती) को स्नान कराया, उसके
बाद अंत में अपने शरीर के ब्राह्मण भाग (सिर) को माँ त्रिवेणी में डुबोकर इस दिव्य
डुबकी को पूर्ण किया। मेरे गायत्री गुरु कहा करते थे कि स्नान का यही क्रम होना
चाहिए, इसलिए मैं घर में भी स्नान करते समय पहले पैरों पर पानी डालता हूँ, फिर
उदर तक पानी पहुँचाता हूँ,
उसके बाद कंधों पर और अंत में सिर पर पानी
डालता हूँ। इस क्रम के पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि शरीर का तापमान नियंत्रित रहे
और ठंडे पानी का प्रभाव क्रमशः शरीर पर पड़े,
जिससे शरीर को अचानक तापमान परिवर्तन से
कोई झटका न लगे। जब पैरों पर पानी डाला जाता है, तो शरीर धीरे-धीरे ठंडे पानी के संपर्क में
आता है, फिर जब पानी उदर और कंधों तक पहुँचता है, तो
रक्त संचार सुचारु रूप से प्रवाहित होता है और अंत में सिर पर पानी डालने से
मस्तिष्क को ठंडक मिलती है,
जिससे स्नान ताजगी और ऊर्जा प्रदान करने
वाला बन जाता है। इसी कारण से यह स्नान विधि न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से बल्कि
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत उपयुक्त मानी जाती है। स्नान
के बाद तर्पण आदि करके मैं वापस आ गया। पुलिस वाले अभी भी मेरे सामानों की रक्षा
के लिए वहीं खड़े थे। मैंने उनका धन्यवाद किया और वे आगे निकल गए। मन ही मन मैंने
योगी जी को उत्कृष्ट व्यवस्था के लिए धन्यवाद दिया और गीले कपड़े बदलने लगा। उसके
बाद कुछ देर वहीं बैठकर ध्यान किया।
इतने में मेरी माता जी का फोन आया। उन्होंने कहा, "अकेले गए हो, तो सबसे पहले सामानों की सुरक्षा सुनिश्चित करना और पंडा जी (हमारे पारंपरिक तीर्थ पुरोहित) को ढूंढ़ लेना। उनके निर्देशानुसार ही सामानों को सुरक्षित स्थान पर रखने के बाद गंगा में उतरना स्नान आदि हेतु। उसके बाद तर्पण आदि कर लेना और उनकी दक्षिणा एवं धर्मांश भी अर्पित कर देना।"
इसके बाद उन्होंने कहा, "संन्यासी संप्रदाय के सभी अखाड़ों और शंकराचार्यों के आश्रमों में भी अपनी हैसियत के अनुसार धर्मांश अर्पित करना। कुंभ का महत्व केवल गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम में स्नान करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं, जूनागढ़ पहाड़ियों, सह्याद्रि पर्वतों, तिब्बत के पर्वतों, भूटान, जापान, म्यांमार और पश्चिम के अन्य देशों से आने वाले ऋषि-मुनियों के ज्ञान और अध्ययन के संगम का भी अवसर है। इसलिए उन सभी का दर्शन भी करना और उन्हें धर्मार्थ अर्पित करना।"
मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि मैं बिल्कुल ऐसा ही करूंगा। फिर उन्होंने कहा, "तीर्थ पुरोहित के रजिस्टर में अपने पूर्वजों के साथ परिवार के नवजात शिशुओं (नई पीढ़ियों) के नाम भी अंकित कराना। मैं ऐसा इसलिए कहती हूँ क्योंकि हमारी आने वाली पीढ़ी यदि हमारा नाम भूल जाए और भूलवश कभी किसी कुंभ में चली जाए, तो तीर्थ पुरोहित हमारे 21 पीढ़ियों के नाम गिना देंगे।"
मैंने धर्मांश दिया या नहीं, संभवतः मेरी माँ तीर्थ पुरोहित से जब वे मेरे पैतृक गाँव में धर्मार्थ लेने जाएंगे, तब इसकी पुष्टि करेंगी। साथ ही, यह भी पूछेंगी कि "मेरा बेटा भेंटवार्ता के दौरान किसी प्रकार की धृष्टता तो नहीं कर बैठा? यदि उसने कोई गलती की हो, तो कृपया क्षमा कर देना।" इत्यादि, इत्यादि।
मैंने प्रयास किया कि हमारे परंपरागत तीर्थ पुरोहित (पंडा जी) मिल जाएँ ताकि उन्हें धर्मांश भी अर्पित कर सकूँ और उनके ही निर्देश में तर्पण व पूजन अनुष्ठान आदि करूँ, लेकिन उन्हें ढूँढ़ नहीं पाया। अनुष्ठान आदि करने के बाद वहाँ से निकल गया। रास्ते में चलते समय अनुभव हुआ कि पैरों के जूते रेत में धँस रहे हैं। ऐसा लगा जैसे इससे माता को तकलीफ़ होती होगी। मैंने जूते उतार दिए और वहीं रेत पर कुछ देर के लिए बैठ गया। कुछ देर बैठने के बाद भूख लगने लगी। स्नान हो चुका था, तो सोचा अब कुछ पेट-पूजा कर ली जाए। वहीं एक जगह एक बड़ी गाड़ी खड़ी थी, जहाँ प्रसाद वितरित हो रहा था। जैसे ही पास पहुँचा, सेवकों ने पूछा, "थाली है आपके पास?" मैंने बैग से थाली निकाली और उन्होंने मेरी थाली में प्रसाद डाल दिया। मैंने प्रसाद ग्रहण किया।
इतने में मेरी सासू माँ, जो वहीं सेक्टर 9 में 1.25 महीने से कलवास साधना कर रही थीं, का फ़ोन आया। उन्होंने पूछा, "कहाँ पहुँचे?" मैंने कहा, "स्नान हो गया है, लेटे हुए हनुमान जी के दर्शन करने जा रहा हूँ, उसके बाद आपकी सेवा में पहुँचता हूँ।" तो उन्होंने कहा, "होटल वगैरह में ठहरने की कोई ज़रूरत नहीं है, आप मेरे साथ मेरे खालसा (टेंट) में ही विश्राम करेंगे।" मैंने कहा, " उचित है।" फिर कई मंदिरों में देवी-देवताओं के दर्शन का लाभ लेते हुए पैदल ही सासू माँ के बताए ठिकाने की ओर चल पड़ा। वहाँ हमने अनेकों विशाल तंबुओं की नगरी देखी। रेत में गाड़ियाँ धँस न जाएँ, उसके लिए माइल्ड स्टील शीट की सड़क बनी हुई देखी, जिन पर गाड़ियाँ सरपट दौड़ने में सक्षम थीं। हज़ारों टॉयलेट्स लगे हुए थे। पैसे हैं या नहीं, कोई समस्या नहीं थी। किसी का पैसा खो गया तो कई श्रद्धालुओं ने मिलकर उनका आर्थिक भार उठा लिया। कोई खो गया तो उसके लिए जगह-जगह पर खोया-पाया केंद्र बनाया हुआ था। मैंने पूछा, "मेरी सासु माँ, जो कि आर्मी की विधवा हैं, उनका खालसा सेक्टर 9 में है, कैसे पहुँचूँ?" तो उन्होंने एक चिट्ठी पर दिशा-निर्देश लिखा और मुझसे कहा, "यह चिट्ठी जगह-जगह खड़ी पुलिस या वॉलंटियर को दिखाते जाइए, अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच जाएँगे।" मैंने ऐसा ही किया और सकुशल अपनी सासु माँ की कुटिया में पहुँच गया। रात्रि में पुनः थोड़ा भोजन उनके साथ किया और सुबह जब तारा मंडल में तारागण चमक ही रहे थे, उसी समय सासू माँ के साथ मुझे भी स्नान का पुण्य लाभ मिला। वापस आकर नाश्ता करने के बाद उन्हें उनकी सभी सखी माताओं के साथ प्रयागराज घुमाने ले गया, जहाँ कई मंदिरों, एक शक्ति पीठ और भारद्वाज मुनि के आश्रम के दर्शन कराए। इसके बाद हम वापस उनकी कुटिया में लौट आए। कुटिया में पहुँचकर संध्या भोजन आदि किया और उसके दूसरे दिन पुनः अनेकों सेक्टर में भ्रमण किया, जहाँ चार में से दो पीठों के शंकराचार्यों के दर्शन किए। 13 अखाड़ों के महामंडलेश्वरों, अनेक नागा साधुओं, कई संप्रदायों - शैव्य, वैष्णव, शाक्त, बौद्ध, सिख, जैन आदि के ऋषियों के खालसों में भ्रमण कर उनके ऋषियों, तपस्वियों का दर्शन एवं आशीर्वाद व प्रसाद आदि पाने का सौभाग्य प्राप्त किया। मैंने गंगाजल भरने की इच्छा जताई तो सासू माँ ने कहा कि मैं सभी मुख्य कुंभ तिथियों को ब्रह्म मुहूर्त में स्नान के के बाद थोड़ा थोड़ा जल भर कर ५ लीटर पवित्र गंगा जल इकठ्ठा किया हुआ उसमें से ले जाना। फिर उन्होंने कहा कि काशी जाने का मौका यदि मिलता है तो वहां से जल बिलकुल नहीं भड़ना क्योंकि यह शास्त्र विरुद्ध है.इन सभी में हमें ऊँच-नीच, जातिवाद, रंगभेद, भाषावाद, प्रांतवाद, बड़ा-छोटा आदि कुछ भी देखने को नहीं मिला। त्रिवेणी माँ ने सभी बच्चों को एक समान स्नेह दिया, और संत-महात्मा आदि भी दर्शन और प्रसाद बिना किसी जाति, भाषा, रंग या प्रांत का भेदभाव किए सभी को समान रूप से दे रहे थे, ऐसा हमने अनुभव किया। पूरे प्रयागराज में किसी भी पुलिस अधिकारी के हाथों में डंडा नहीं देखा और न ही उन्हें किसी पर गुस्सा करते हुए देखा। आगामी सभी चारों कुंभ ऐसे ही होते रहें ऐसी हमारी आंतरिक अभिलाषा है।
संतों और अखाड़ों का, संगम मेले में न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक कार्यक्रम भी चलते रहते हैं। भजन-कीर्तन, प्रवचन, कथा वाचन और विविध ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक नृत्य-नाटिकाएँ इस आयोजन को और भी आकर्षक बनाते हैं। साधु-संतों के शिविरों में जाकर ध्यान और योग की शिक्षा लेना, जीवन के लक्ष्यों को समझना, कर्म और आध्यात्म को संतुलित कैसे करना है, इन सभी गूढ़ तथ्यों को समझना, वहाँ हमें कई ऐसे संन्यासी, ऋषि, महात्मा मिले जो त्रिकालदर्शी थे। उन्होंने मेरे जीवन में घटी हुई और भविष्य में घटने वाली कई घटनाओं का उल्लेख किया बिना हाथ देखे।
प्रयागराज से वाराणसी
तीसरे दिन सुबह हम जागे, धार्मिक अनुष्ठान किए और जलपान के उपरांत प्रस्थान की तैयारी करने लगे। सासू माँ को लेकर हम सेक्टर 9 से प्रयागराज जंक्शन के लिए निकले। भारी सामान के साथ कई किलोमीटर पैदल चलने के बाद हम एक निर्धारित स्थान पर पहुँचे, जहाँ से हमें एक ई-रिक्शा लेना पड़ा। यह ई-रिक्शा कुछ किलोमीटर चलने के बाद हमें छोड़कर चला गया। इसके बाद दूसरा ई-रिक्शा लिया, जिसने हमें प्रयागराज स्टेशन के पास उतार दिया।
रिक्शा चालक ने हमें बताया कि यदि बाईं ओर जाएँ तो स्टेशन केवल दो मिनट की दूरी पर है, लेकिन यदि दाईं ओर जाएँ तो 15-20 मिनट का पैदल सफर करना होगा। हमने बाईं ओर जाने की कोशिश की, लेकिन हमें अनुमति नहीं दी गई। मजबूरन, दाईं ओर जाने का निर्णय लिया और भारी सामान उठाए हुए लगभग 20 मिनट की कठिन यात्रा के बाद प्रयागराज स्टेशन पहुँचे। वहाँ ससुराल पक्ष के कुछ परिजन सासू माँ को लेने आए थे। मैं भी उनके साथ स्टेशन के प्लेटफॉर्म तक गया और उन्हें विदा करने के बाद वापस लौट आया।
एक अनिश्चित प्रतीक्षा
चूँकि मेरी दो ट्रैन में बुकिंग थी एक ६ बजे शाम और दूसरी रात 10 बजे उसी दिन लेकिन टिकट अनिश्चित (वेटिंग लिस्ट) था। स्टेशन से बाहर निकलते ही मेरी मुलाकात एक पुलिस अधिकारी से हुई, जिन्हें मैंने अपनी स्थिति बताई कि मैं एक सेना अधिकारी की 70 वर्षीय विधवा माता को ट्रेन में चढ़ाने के लिए स्टेशन में प्रवेश किया था, लेकिन मेरी टिकट अब तक कन्फर्म नहीं हुई है। मैंने उनसे बाहर निकलने में सहायता की गुजारिश की। उन्होंने बताया कि प्रशासनिक व्यवस्था बहुत सख्त है, लेकिन मेरी परिस्थिति को देखते हुए वे मुझे स्टेशन के सामने एक होटल में ठहरने की व्यवस्था कर सकते हैं। उन्होंने मुझे एक होटल में स्थान दिलाया, जहाँ मैंने एक घंटे विश्राम किया।
काशी बुलावा आया
लगभग एक घंटे बाद मेरी भतीजी का फोन आया, जिसने बताया कि वह वाराणसी में है और बाबा विश्वनाथ के दर्शन के
लिए मुझे आमंत्रित कर रही है। यह सुनते ही मैं उत्साहित हो गया। होटल मालिक को यह
सूचना दी,
तो उन्होंने मुझसे 300 रुपये देकर चेकआउट करने को कहा। हालांकि, हमने पहले 1000 रुपये की बात की थी, इसलिए मैंने उन्हें 500 रुपये दिए और होटल से बाहर निकल आया। बाहर पुलिस अधिकारी दिखे, तो मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और फिर
स्टेशन के अंदर चला गया।
स्टेशन पर पता चला कि प्रयागराज से प्रतिदिन लगभग 130 ट्रेनें पूरे देश में जाती हैं और वेटिंग टिकट वाले यात्रियों की स्थिति अनिश्चित रहती है। पुलिस अधिकारियों ने सलाह दी कि बिना टिकट यात्रा शुरू कर दो। मैंने उनकी सलाह मानी और ट्रेन में सवार हो गया। जब प्रयागराज से 55 किलोमीटर दूर पहुँचा, तब सूचना मिली कि मेरी एक टिकट, जो शाम 6 बजे की थी, कन्फर्म हो चुकी है। यह सुनते ही मैं अगले स्टेशन (मांडा रोड स्टेशन) पर उतर गया।
स्टेशन पर प्रतीक्षा करने के बाद एक वापसी ट्रेन आई, जो प्रयागराज जा रही थी। वहाँ तैनात पुलिसकर्मियों ने मुझे भीड़ भरी ट्रेन में चढ़ा दिया। मैं ट्रेन के गेट पर खड़ा होकर यात्रा करने लगा, हालांकि ट्रेन का दरवाजा बंद था, और मैं ट्रेन के अंदर दरवाजे के पास खड़ा था। दिनभर बिना भोजन और पानी के रहने के कारण अचानक चक्कर आ गया और मैं गिर पड़ा।
एक युवा दंपति, जो कुंभ मेले के लिए यात्रा कर रहे थे, उन्होंने मेरी देखभाल की। जब मुझे थोड़ा होश आया, तो मैंने उनसे आग्रह किया कि यदि उनके पास कोई चॉकलेट हो तो दें। एक बच्चे ने अपना लॉलीपॉप दिया, जिसे मैंने खा लिया। कुछ देर बाद मेरी चेतना वापस आई।
प्रयागराज चेओकी स्टेशन के पास उस दंपति ने सलाह दी कि मेरी टिकट चूंकि चेओकी से कन्फर्म थी, इसलिए मुझे वहीं उतर जाना चाहिए। मैं उतर गया और स्टेशन तक पैदल यात्रा की। पुलिस अधिकारियों को अपनी स्थिति बताई, तो उन्होंने तुरंत एक खाली बेंच उपलब्ध करवा दी, जहाँ मैं आराम करने लगा। उन्होंने सूचित किया कि मेरी ट्रेन एक घंटे देर से आएगी। प्रतीक्षा के बाद अंततः ट्रेन साढ़े तीन घंटे की देरी से आई। किसी तरह उसमें सवार होकर अपनी मिडल बर्थ पर जाकर सो गया। मैंने ऐसा अनुभव किया जैसे कि वह दंपति साक्षात शिव और पार्वती ही थे, जो मेरी सहायता के लिए आए थे, या तो वे जानकी रामचंद्र जी थे या राधा कृष्ण जी। लेकिन जो भी थे, उनके द्वारा की गई इस असीम कृपा की अनुभूति सदा-सर्वदा मेरे मानस पटल पर अंकित रहेगी। इस अनुभव ने मुझे यह दिव्य संदेश दिया कि किसी भी जरूरतमंद मानव की सेवा ही मनुष्य जीवन को उत्कृष्टता के शिखर पर पहुँचाने का सच्चा मार्ग है। मैं पहले भी इसी मार्ग पर चलता था और अब भविष्य में और अधिक दृढ़ता से इसी पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित हो गया हूँ।
इस यात्रा ने मुझे सिखाया कि जीवन में कभी
भी अकेले लंबी यात्रा नहीं करनी चाहिए। कठिनाइयाँ अचानक आ सकती हैं, और एक साथी होने से कठिन परिस्थितियों का
सामना करना आसान हो जाता है। इस यात्रा ने न केवल मेरे धैर्य और सहनशक्ति की
परीक्षा ली,
बल्कि यह भी सिखाया कि अजनबियों की मदद भी
कभी-कभी वरदान साबित हो सकती है। जब सब भगवान की इच्छा से होता है तो फिर मुझे या किसी को बहुत
ज्यादा चिंता करने की आवस्यकता नहीं पड़नी चाहिए। लेकिन जीवन भर मैं उन दम्पत्तियों को
ढूंढ़ने और दोबारा उनसे मिलकर धन्यवाद् देने की कोशिश जरूर करूंगा।
स्नानेन कुंभजे पुण्यं सर्वपापक्षयाय च।
नवीनं
न करोम्येव पापं देहि वरं हरि॥"
(संस्कृत
में रचित श्लोक, संदर्भ आधुनिक परंपरा से प्रेरित)
अर्थ: कुंभ में स्नान से समस्त पापों का क्षय होता है, पर मैं संकल्प लेता हूँ कि अब भविष्य में कोई नया पाप नहीं
करूँगा। हे हरि! मुझे यह वरदान दो कि मैं सदैव धर्म के मार्ग पर चलूँ।
महाकुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह संपूर्ण सनातन समाज के लिए एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महायज्ञ है। यह आयोजन देवताओं के निर्देशानुसार होता है और ऋषि-मुनियों द्वारा स्वप्न या प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से सबसे पहले तपस्वियों, संन्यासियों और साधकों तक इसकी सूचना पहुँचती है। इस ज्ञान को शिष्य परंपरा के माध्यम से आगे संप्रेषित किया जाता है, जिससे पंचांग निर्माण करने वाले विद्वान, आचार्य और संप्रदायों के गुरुओं तक यह संदेश पहुँचता है। इसके आधार पर पंचांग की रचना की जाती है, जिसमें महाकुंभ की तिथियाँ, शुभ मुहूर्त और साधना पद्धति का विस्तृत उल्लेख होता है। इसके पश्चात करोड़ों सनातन धर्मावलंबी अपने कुलपुरोहितों के निर्देशन में अपने अनुष्ठान पूर्ण करते हैं। यह युगों-युगों से चली आ रही एक सुव्यवस्थित धार्मिक परंपरा है, जो धर्म, अध्यात्म और संस्कृति को एक सूत्र में पिरोती है।
सनातन धर्म समस्त विश्व के कल्याण की कामना करता है। इसका मूल सिद्धांत "सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः" है, जो सभी के सुख और स्वास्थ्य की प्रार्थना करता है। साथ ही, "वसुधैव कुटुंबकम्" के सिद्धांत के तहत यह सम्पूर्ण जगत को एक परिवार के रूप में देखता है।
सनातन धर्म की विशेषता यह है कि इसमें न तो विस्तारवाद है, न बलपूर्वक धर्मांतरण। यह किसी अन्य पंथ के प्रति द्वेष, ईर्ष्या, छल-प्रपंच का समर्थन नहीं करता, न ही किसी प्रकार के षड्यंत्र में विश्वास रखता है। यह प्रेम और सहिष्णुता का प्रतीक है, न कि "प्रेमजाल" जैसे षड्यंत्रों के माध्यम से किसी संस्कृति का विनाश करने का साधन, जैसा कि तिब्बत में देखा गया।
यदि किसी व्यक्ति ने अज्ञानतावश अथाह धनार्जन की इच्छा कर भी ली, तो सनातन धर्म में उसे पाप और पुण्य के आधार पर मार्गदर्शन देने के लिए गरुड़ पुराण जैसे दिव्य ग्रंथ उपलब्ध कराए गए हैं। यह ग्रंथ व्यक्ति को आत्मचिंतन की ओर प्रेरित करता है और यह बोध कराता है कि कर्म के अनुसार 28 प्रकार के नर्कों का विधान सुनिश्चित किया गया है, जिसमें व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। इसी प्रकार, पुण्य कर्मों के आधार पर स्वर्ग की प्राप्ति का भी उल्लेख किया गया है। इस तरह सनातन धर्म केवल भौतिक जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मा की यात्रा, मोक्ष और दिव्यता की ओर ले जाने वाला मार्ग है।
कुंभ मेले के आयोजन की प्रक्रिया दर्शाती है कि सनातन धर्म का आधार केवल धर्मशास्त्रों पर नहीं, बल्कि एक सुनियोजित और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर भी टिका हुआ है। यह आयोजन समाज को केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक रूप से भी सशक्त करता है। यही कारण है कि सनातन धर्म युगों-युगों से न केवल टिका हुआ है, बल्कि और अधिक समृद्ध होता जा रहा है।
अब सोचने वाली बात यह है कि इतना बड़ा आयोजन यदि पुरोहितों के कहने पर कुशलतापूर्वक संपन्न हो सकता है, तो कल्पना करें कि यदि एक दिन यही पुरोहित, संत और महात्मा यह घोषणा कर दें कि "सीमा विस्तारवाद ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है," तो इसका प्रभाव कितना गंभीर हो सकता है। यदि ऐसा हुआ तो संसार में कोई अन्य देश बचेगा भी या नहीं, क्योंकि सनातन धर्मावलंबी अपने पुरोहितों के निर्देशों का पालन करते हुए सभी देशों पर चढ़ाई कर रहे होंगे, और भारतीय सीमा का निरंतर विस्तार होता चला जाएगा, जिससे अंततः संपूर्ण विश्व भारत की सीमा के अंतर्गत आ जाएगा। यह विचार एक महत्वपूर्ण बिंदु को रेखांकित करता है, जो सनातन धर्म की विशालता और अन्य पंथों की सोच में अंतर को स्पष्ट करता है। सनातन धर्म किसी अन्य व्यक्ति या समुदाय की संपत्ति हड़पने का लोभ नहीं सिखाता, बल्कि सभी के कल्याण की इच्छा रखने वाली एक समुचित व्यवस्था का प्रतीक है।
सनातन धर्म की शक्ति इस तथ्य में निहित है कि हमारे नागा साधु शास्त्र और शस्त्र दोनों में निपुण हैं। यह धर्म रक्षा के साथ-साथ शांति और सद्भाव का भी समर्थन करता है। यदि नागा साधुओं की एक विशेष टीम बनाई जाए, जो सीमा सुरक्षा बल के जवानों, कॉलेज के विद्यार्थियों, कॉर्पोरेट के उच्च प्रबंधन कर्मचारियों को विशेष प्रकार के योग एवं आध्यात्मिकता के साथ अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित रहने का प्रशिक्षण दे, तो भारत न केवल पुनः विश्वगुरु शीघ्रता से बन सकता है, बल्कि अन्य ग्रहों पर भी शासन करने की प्रबल संभावनाएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
नागा साधु:
सनातन धर्म के अद्वितीय योद्धा संन्यासी
धर्मसंस्थापनार्थाय तपः कुर्वन्ति योगिनः।
नागाः संन्यस्तसर्वेषु धर्मरक्षणकारिणः॥
अर्थ:
योगीजन धर्म की स्थापना के लिए तपस्या करते
हैं, और नागा संन्यासी अपने वैराग्य और शस्त्रबल से धर्म की रक्षा करने
वाले होते हैं।
शस्त्रेण रक्षितो धर्मः शास्त्रेण च विवर्धितः।
यदा शस्त्रं न विद्येत तदा धर्मो
विनश्यति॥"
अर्थ: शस्त्र के बल से धर्म की रक्षा होती है और शास्त्र के माध्यम से
उसका विकास होता है। जब शस्त्र नहीं होते, तब
धर्म का नाश हो जाता है।
नागा साधु कौन हैं?
नागा साधु सनातन धर्म के वे तपस्वी योद्धा
संन्यासी हैं, जो कठोर साधना,
वैराग्य और शस्त्र-साधना में निपुण होते
हैं। ये अपने तन पर कोई वस्त्र धारण नहीं करते, भस्म रमाते हैं और जीवनभर ब्रह्मचर्य व
संन्यास का पालन करते हैं। नागा साधुओं का मुख्य उद्देश्य आत्मज्ञान प्राप्त करना, धर्म
की रक्षा करना और समाज में आध्यात्मिकता का प्रचार-प्रसार करना है।
नागा साधु कहाँ रहते हैं?
नागा साधु मुख्य रूप से अखाड़ों से जुड़े
होते हैं और हिमालय,
गंगा-यमुना के तटों, काशी, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक, प्रयागराज
जैसे तीर्थ स्थलों के मठों,
आश्रमों और जंगलों में रहते हैं। ये साधु
अधिकतर एकांतवास में ध्यान-साधना करते हैं,
लेकिन कुंभ जैसे महापर्वों में संगठित रूप
से एकत्रित होते हैं।
नागा साधु क्या करते हैं?
कठोर योग और तपस्या द्वारा
आत्म-साक्षात्कार की साधना करते हैं।
सनातन धर्म की रक्षा हेतु शस्त्र और
शास्त्र दोनों में निपुण होते हैं।
समाज को धार्मिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन
प्रदान करते हैं।
जब भी धर्म, संस्कृति या राष्ट्र पर संकट आता है, तो
ये स्वयं को धर्मयोद्धा के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
दान-दक्षिणा पर निर्भर रहते हैं और सांसारिक सुखों से दूर रहते हैं।
नागा साधु कैसे बनते हैं?
नागा साधु बनने की प्रक्रिया अत्यंत कठिन
और कठोर होती है। इसके लिए व्यक्ति को अपनी सांसारिक इच्छाओं, परिवार
और भौतिक सुखों को त्यागकर अखाड़ों में प्रवेश लेना पड़ता है। नागा साधु बनने की
प्रक्रिया निम्नलिखित चरणों में पूरी होती है:
दीक्षा ग्रहण करना: इच्छुक
साधु किसी अखाड़े में प्रवेश कर गुरु से प्राथमिक दीक्षा लेते हैं।
कठोर साधना और तप: कई
वर्षों तक तपस्या, ध्यान,
योग और सेवा करते हैं।
संन्यास दीक्षा: गुरु
के निर्देशानुसार जब यह सिद्ध हो जाता है कि व्यक्ति भौतिक मोह-माया से मुक्त हो
चुका है, तब उसे संन्यास की अंतिम दीक्षा दी जाती है, और
वह "नागा साधु" कहलाता है।
दिगंबर जीवन: नागा
साधु वस्त्र त्यागकर भस्म धारण करते हैं,
जो उनके संपूर्ण वैराग्य का प्रतीक होता
है।
नागा साधुओं का उद्देश्य क्या होता है?
नागा साधुओं का मुख्य उद्देश्य आत्म-ज्ञान, धर्म-रक्षा
और समाज को आध्यात्मिक मार्ग पर प्रेरित करना होता है। वे व्यक्तिगत मोक्ष के
साथ-साथ धर्म-संरक्षण को भी अपना कर्तव्य मानते हैं। इतिहास में कई बार नागा साधु
धर्म और राष्ट्र रक्षा के लिए संघर्षरत रहे हैं, जैसे कि मुगलों और ब्रिटिश आक्रांताओं के
समय।
नागा साधुओं को नियंत्रित कौन करता है?
नागा साधु किसी व्यक्तिगत व्यक्ति या
संस्था के अधीन नहीं होते,
बल्कि वे विभिन्न अखाड़ों से
जुड़े होते हैं। भारत में नागा साधुओं के प्रमुख अखाड़े अखाड़ा
परिषद
के अंतर्गत आते हैं, जो
कुल 13 अखाड़ों का संगठन है। इन अखाड़ों का नेतृत्व महंत, महामंडलेश्वर
और आचार्य महामंडलेश्वर जैसे शीर्ष संतों द्वारा किया जाता है। वे ही नागा साधुओं
के अनुशासन, दीक्षा और कार्यों का संचालन करते हैं।
क्या नागा साधुओं के रहते हमें अपने धर्म
और संस्कृति की सुरक्षा को लेकर चिंतित होने की आवश्यकता है?
नहीं,
बल्कि यह नागा साधु ही हैं जो सनातन धर्म
की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इतिहास गवाह है कि जब-जब सनातन धर्म
पर संकट आया, नागा साधुओं ने आगे बढ़कर संघर्ष किया। चाहे मुगलकाल रहा हो या
ब्रिटिश शासन, नागा साधुओं ने धर्म और राष्ट्र रक्षा में अग्रणी भूमिका निभाई
है। वर्तमान समय में भी,
जब सनातन संस्कृति को तोड़ने के प्रयास हो
रहे हैं, नागा साधु धर्म के मूल स्वरूप को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभा रहे हैं।
राष्ट्र धर्म के प्रति नागा साधुओं का
कर्तव्य और योगदान क्या है?
राष्ट्र धर्म की रक्षा:
जब भी किसी शक्ति ने सनातन धर्म पर आक्रमण
किया, नागा साधुओं ने उसका प्रतिकार किया।
युवाओं को प्रेरणा: यदि
सरकार नागा साधुओं के विशेष प्रशिक्षण को सीमा सुरक्षा बलों, कॉलेज
छात्रों और कॉर्पोरेट उच्च प्रबंधन में शामिल करे, तो भारत पुनः विश्वगुरु बन सकता है।
शास्त्र और शस्त्र दोनों की साधना: नागा
साधु केवल ध्यान-साधना तक सीमित नहीं हैं,
बल्कि वे शस्त्रों के भी ज्ञाता होते हैं।
धार्मिक संतुलन और आध्यात्मिकता का प्रचार: नागा
साधु अपने तप और जीवनशैली के माध्यम से समाज को धर्म के मूल सिद्धांतों की ओर
लौटने के लिए प्रेरित करते हैं।
सनातन धर्म की पुनर्जागरण और नागा साधुओं
की भूमिका
आज सनातन धर्म अपने
असली स्वरूप में पुनः जागरूक हो रहा है, और इसकी विशालता एवं
शक्ति एक नए युग का संकेत दे रही है। नागा साधुओं की तपस्या, शौर्य और साधना इस
पुनर्जागरण का महत्वपूर्ण आधार है। हम सबल हैं क्योंकि हमारा धर्म और उसके सभी
पंथ-सम्प्रदाय शास्त्र और शस्त्र दोनों में समान रूप से प्रभावशाली हैं। यह एक
अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर और अधिक विस्तृत चिंतन करने की आवश्यकता है।
महाकुंभ का महात्म्य वेदों एवं पुराणों में:
स्कंद पुराण:
"कुम्भे कुम्भोद्भवः स्नात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।"
(कुंभ में स्नान करने से मनुष्य समस्त पापों
से मुक्त होकर परम मोक्ष प्राप्त करता है।)
वायुपुराण:
"त्र्यहं कुम्भोद्भवे स्नात्वा यत्र क्वापि मरणं भवेत्।
स वै मुक्तो न सन्देहो विष्णुना सह
मोदते॥"
(जो व्यक्ति कुंभ पर्व में तीन दिनों तक
स्नान करता है और फिर कहीं भी शरीर त्यागता है, वह निःसंदेह मुक्त होकर श्रीविष्णु के धाम
में जाता है।)
पद्मपुराण:
"यत्र गंगा च यमुना चैव सरस्वती च महापगा:।
संगच्छन्ति महाभागास्तत्र स्नानं
समाचरेत्॥"
(जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती जैसी महान नदियाँ संगम
करती हैं, वहाँ स्नान करने से महान पुण्य प्राप्त होता है।)
ऋग्वेद:
"आपो हि ष्ठा मयोभुवः ता न ऊर्जे दधातन।
महेरणाय चक्षसे॥" (ऋग्वेद 10.9.1)
(जल ही अमृत है, जो
हमें ऊर्जा प्रदान करता है और मोक्ष के मार्ग पर ले जाता है।)
सनातन धर्म केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं, यह जीवन जीने की एक उत्कृष्ट प्रणाली है..."
स्नानेन कुंभजे पुण्यं सर्वपापक्षयाय च। नवीनं न करोम्येव पापं देहि वरं हरि॥
(संस्कृत में रचित श्लोक, संदर्भ
आधुनिक परंपरा से प्रेरित)
अर्थ: कुंभ में स्नान से समस्त पापों का
क्षय होता है,
पर मैं संकल्प लेता हूँ कि अब भविष्य में
कोई नया पाप नहीं करूँगा। हे हरि! मुझे यह वरदान दो कि मैं सदैव धर्म के मार्ग पर
चलूँ।
बिमलेंद्र झा
सेंट्रल प्रोक्योरमेंट डिवीज़न
नवनित ग्रुप
Note: - जो इस लेख को अंग्रेजी या किसी अन्य भारतीय संवैधानिक भाषा में पढ़ना चाहते हैं, वे मुझसे संपर्क कर सकते हैं। मैं उन्हें उनकी भाषा में अनुवादित ई-कॉपी उपलब्ध कराने का प्रयास करूंगा।
Comments
Post a Comment